Penned By Narayan-Chandra Rauf
शायर: नारायण-चन्द्र रउफ
पलके शर्म से झुकती हो तो ग़ज़ल होती है
अँधेरा दरीचों से गुज़रती हो तो ग़ज़ल होती है
ठुकराये हमे की वो दिल चूर चूर कर दे
इशक़-दी-चूरे चुभती हो तो ग़ज़ल होती है
लहजे उमड़ते हैं कैसे हमे नहीं मालूम के
सीने में आस जलती हो तो ग़ज़ल होती है
आसूँ आँखों से बहती हो तो ग़ज़ल होती है
बनके मोती ढलती हो तो ग़ज़ल होती है
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